एक चिंगारी थी धारण में
जिसको थोड़ी सी हवा लगी
तो मशाल बन के निकली हाथों मे
तब तम थी और हवा धीमी थी
आँखों को सिर्फ रोशनी दिखती थी
और कदमों को राहे खुल जाती थी
अब जाने कहां से आँधी निकली है
मशाल ख़ुद डगमगा के रो रही है
ना जाने कब आग लगे सफ़र को
अब तो या यहां दिन निकले
और मशाल के साथ,
मुझ को भी सुरज निगले
या उम्मीद की बरसात हो जाये
सारे मैल को फिसला दे धुलने को
उसी बीज़ को भिगोये उगने को
फिर निकालूँगा थाट से
उसी अमित रोशनी को जगाते
एक नयी राह पे कदम उठाते ।
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