Monday, October 17, 2022

आशा

एक चिंगारी थी धारण में 

जिसको थोड़ी सी हवा लगी 

तो मशाल बन के निकली हाथों मे 


तब तम थी और हवा धीमी थी 

आँखों को सिर्फ रोशनी दिखती थी 

और कदमों को राहे खुल जाती थी 


अब जाने कहां से आँधी निकली है 

मशाल ख़ुद डगमगा के रो रही है 

ना जाने कब आग लगे सफ़र को  


अब तो या यहां दिन निकले 

और मशाल के साथ,

मुझ को भी सुरज निगले 


या उम्मीद की बरसात हो जाये 

सारे मैल को फिसला दे धुलने को 

उसी बीज़ को भिगोये उगने को 


फिर निकालूँगा थाट से

उसी अमित रोशनी को जगाते 

एक नयी राह पे कदम उठाते ।

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